‘गीतांजलि’ गुरूदेव
रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941) की सर्वाधिक प्रशंसित और पठित पुस्तक
है। इसी प्रकार उन्हें 1910 में विश्व प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार भी
मिला । इसके बाद अपने जीवन काल में अपने पूरे जीवन काल में वे भारतीय
साहित्य पर छाए रहे है। साहित्य की विभिन्न विधाओं, संगीत और चरित्र
कला में सतत् सृजनरत रहते हुए उन्होंने अन्तिम साँस तक सरस्वती की
साधना की और भारतवासियों के लिए गुरू देव के रूप में प्रतिष्ठित
हुए। प्रकृति,
प्रेम ईश्वर के प्रति निष्ठा, और मानवतावादी मूल्यों के प्रति समर्पण
भाव से सम्पन्न गीतांजलि के गीत पिछली एक सदी से बांग्लाभाषी जनों की
आत्मा में बसे हुए हैं। विभिन्न भाषाओं में हुए इसके अनुवादों के
माध्यम से विश्व भर के सह्रदय पाठक इसका रसास्वादन कर चुके
हैं। प्रस्तुत
अनुवाद हिंदी में भिन्न है कि इसमें मूल बांग्ला रचनाओं के गीतात्मकता
को बरकरार रखा गया है, जो इन गीतों का अभिन्न हिस्सा है, इस गेयता के
कारण आप इन गीतों को याद रख सकते हैं। तुम्हें
रहूँ, प्रभु ! अपना सतत बनाए, इतना-सा ही मेरा ‘मैं’ रह
जाए। तुम्हें
निरखता हूँ प्रत्येक दिशा में, अर्पित कर सर्वस्य मिलूँ मैं तुम
से; प्रेम लगाए
रहूँ अहर्निश तुम में,इच्छा मेरी इतनी सी रह जीए। तुम्हें रहूँ
प्रभु ! अपना सतत बनाए।। तुम्हें रखूँ
मैं कहीं ढक करके, इतना सा ही मन मेरा बचा रहे। प्राण-भरित
हो लीला,नाथ ! तुम्हारी, रखे हुए हो मुझे इसी भाव से
में; बँधा रहूँ
तव-पाश में चिर मैं, इतना-सा ही बन्धन मेरा रह जाए। तुम्हें रहूँ
प्रभू ! अपना सतत बनाए।।
manu Sep 8th, 2013 @ 10:19 AM
हिन्दी साहित्य की आत्मा का ही अंग बन गई है
ABHISHEK RANJAN Sep 6th, 2013 @ 01:46 AM
nice book. everyone should must read this book